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जानें क्यों किया जाता है पिंड दान, पितृपक्ष का क्या है महत्त्व : Biharplus News

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हिंदू धर्म, सनातन धर्म का ही एक प्रचलित नाम सनातन का अर्थ होता है, जो पृथ्वी या ब्रह्मांड के अस्तित्व के समय से ही अस्तित्व में है…हिन्दू धर्म में सदियों से कई परंपराएं और मान्यताएं चली आ रही हैं जिसका लोग आज भी पालन करते आ रहे हैं। और ऐसी हैं एक परंपरा है पिंड दान की परंपरा, जो पितृपक्ष के महीने में किया जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि पितृपक्ष क्यों मनाया जाता है । अगर नहीं जानते तो चलिए हम आपको बताते हैं….भारतीय महीनों की गणना के अनुसार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को सृष्टि पालक भगवान विष्णु के प्रतिरूप श्रीकृष्ण का जन्म धूमधान से मनाया जाता है। तदुपरांत शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को प्रथम देव गणेशजी का जन्मदिन यानी गणेश महोत्सव के बाद भाद्र पक्ष माह की पूर्णिमा से अपने पितरों की मोक्ष प्राप्ति के लिए अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व शुरू हो जाता है। इसको महापर्व इसलिए बोला जाता है क्योंकि नौदुर्गा महोत्सव नौ दिन का होता है, दशहरा पर्व दस दिन का होता है, पर यह पितृ पक्ष सोलह दिनों तक चलता है।

हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार अश्विन माह के कृष्ण पक्ष से अमावस्या तक अपने पितरों के श्राद्ध की परंपरा है। यानी कि 12 महीनों के मध्य में छठे माह भाद्र पक्ष की पूर्णिमा से (यानी आखिरी दिन से) 7वें माह अश्विन के प्रथम पांच दिनों में यह पितृ पक्ष का महापर्व मनाया जाता है। सूर्य भी अपनी प्रथम राशि मेष से भ्रमण करता हुआ जब छठी राशि कन्या में एक माह के लिए भ्रमण करता है तब ही यह सोलह दिन का पितृ पक्ष मनाया जाता है। उपरोक्त ज्योतिषीय पारंपरिक गणना का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि शास्त्रों में भी कहा गया है कि आपको सीधे खड़े होने के लिए रीढ़ की हड्डी यानी बैकबोन का मजूबत होना बहुत आवश्यक है, जो शरीर के लगभग मध्य भाग में स्थित है और जिसके चलते ही हमारे शरीर को एक पहचान मिलती है। उसी तरह हम सभी जन उन पूर्वजों के अंश हैं अर्थात हमारी जो पहचान है यानी हमारी रीढ़ की हड्डी मजबूत बनी रहे उसके लिए हर वर्ष के मध्य में अपने पूर्वजों को अवश्य याद करें और हमें सामाजिक और पारिवारिक पहचान देने के लिए श्राद्ध कर्म के रूप में अपना धन्यवाद अर्थात अपनी श्रद्धाजंलि दें।


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस अवधि में हमारे पूर्वज मोक्ष प्राप्ति की कामना लिए अपने परिजनों के निकट अनेक रूपों में आते हैं। इस पर्व में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व उनकी आत्मा की शांति देने के लिए श्राद्ध किया जाता है और उनसे जीवन में खुशहाली के लिए आशीर्वाद की कामना की जाती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार जिस तिथि में माता-पिता, दादा-दादी आदि परिजनों का निधन होता है। इन 16 दिनों में उसी तिथि पर उनका श्राद्ध करना उत्तम रहता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उसी तिथि में जब उनके पुत्र या पौत्र द्वारा श्राद्ध किया जाता है तो पितृ लोक में भ्रमण करने से मुक्ति मिलकर पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त हो जाता है। हमारे पितरों की आत्मा की शांति के लिए ‘श्रीमद भागवत् गीता’ या ‘भागवत पुराण’ का पाठ अति उत्तम माना जाता है।
इस परंपरा के पीछे धार्मिक वजह क्या है और ऐसा क्यों किया जाता है. ये बात बहुत कम लोग जानते हैं, तो चलिए आपको बताते हैं कि इस परंपरा को पंचबली क्यों कहा जाता है और क्या है इसका महत्व

गोबलि – पश्चिम दिशा की ओर पत्ते पर गाय के लिए खाना निकालते हैं। इसमें भोजन का एक हिस्सा गाय को दिया जाता है क्योंकि गरुड़ पुराण में गाय को वैतरणी नदी से पार लगाने वाली कहा गया है। गाय में ही सभी देवता निवास करते हैं। गाय को भोजन देने से सभी देवता तृप्त होते हैं इसलिए श्राद्ध का भोजन गाय को भी देना चाहिए।
श्वानबलि – पंचबली का एक भाग कुत्तों को खिलाया जाता है। कुत्ता यमराज का पशु माना गया है, श्राद्ध का एक अंश इसको देने से यमराज प्रसन्न होते हैं। शिवमहापुराण के अनुसार, कुत्ते को रोटी खिलाते समय बोलना चाहिए कि- यमराज के मार्ग का अनुसरण करने वाले जो श्याम और शबल नाम के दो कुत्ते हैं, मैं उनके लिए यह अन्न का भाग देता हूं। वे इस बलि (भोजन) को ग्रहण करें। इसे कुक्करबलि कहते हैं।

काकबलि – पंचबली का एक भाग कौओं के लिये छत पर रखा जाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार, कौवा यम का प्रतीक होता है, जो दिशाओं का फलित (शुभ-अशुभ संकेत बताने वाला) बताता है। इसलिए श्राद्ध का एक अंश इसे भी दिया जाता है। कौओं को पितरों का स्वरूप भी माना जाता है। श्राद्ध का भोजन कौओं को खिलाने से पितृ देवता प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वाले को आशीर्वाद देते हैं।

देवादिबलि – देवताओं को भोजन देने के लिए देवादिबलि की जाती है। इसमें पंचबली का एक भाग अग्नि को दिया जाता है जिससे ये देवताओं तक पहुंचता है। पूर्व में मुंह रखकर गाय के गोबर से बने उपलों को जलाकर उसमें घी के साथ भोजन के 5 निवाले अग्नि में डाले जाते हैं। इस तरह देवादिबलि करते हुए देवताओं को भोजन करवाया जाता है। ऐसा करने से पितर भी तृप्त होते हैं।

पिपीलिकादिबलि – इसी प्रकार पंचबली का एक हिस्सा चींटियों के लिए उनके बिल के पास रखा जाता है। इस तरह चीटियां और अन्य कीट भोजन के एक हिस्से को खाकर तृप्त होते हैं। इस तरह गाय, कुत्ते, कौवे, चीटियों और देवताओं के तृप्त होने के बाद ब्राह्मण को भोजन दिया जाता है। इन सबके तृप्त होने के बाद ब्रह्मण द्वारा किए गए भोजन से पितृ तृप्त होते हैं।

यह महत्वपूर्ण है कि पितरों को धन से नहीं, बल्कि भावना से प्रसन्न करना चाहिए। विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि निर्धन व्यक्ति जो नाना प्रकार के पकवान बनाकर अपने पितरों को विशेष भोजन अर्पित करने में सक्षम नहीं हैं, वे यदि मोटा अनाज या चावल या आटा और यदि संभव हो तो कोई सब्जी-साग व फल भी यदि पितरों को प्रति पूर्ण आस्था से किसी ब्राह्मण को दान करता है तो भी उसे अपने पूर्वजों का पूरा आशीर्वाद मिल जाता है।